पातालेश्वर महादेव मंदिर, सेवाड़ा – 7वीं शताब्दी का शिव मंदिर

सेवाड़ा का पातालेश्वर महादेव मंदिर: Pataleshwar Mahadev Mandir, Sewara

सेवाड़ा का पातालेश्वर महादेव मंदिर उपखंड मुख्यालय सांचौर से 28 किलोमीटर दूर तथा रानीवाड़ा-सांचौर राज्य मार्ग पर रानीवाड़ा रेलवे स्टेशन से लगभग 20 किलोमीटर दूर सेवाड़ा ग्राम में अनुमानतः सातवीं-आठवीं शताब्दी का अति प्राचीन एवं कलात्मक पातालेश्वर शिव मंदिर अपने अतीत के वैभव को संजोए भग्नावशेष अवस्था में आज भी अवस्थित है। "सांचौर का इतिहास" के अंतर्गत "सांचौर के प्राचीन मंदिर" की इस कड़ी में आज हम सेवाड़ा के पातालेश्वर महादेव मंदिर के ऐतिहासिक, धार्मिक और स्थापत्य महत्व पर प्रकाश डालेंगे।

इसकी शिल्पकला एवं बारीक कारीगरी भारत के किसी भी मध्यकालीन श्रेष्ठ मंदिर के समान प्रकट होती है। यह मंदिर मूर्तिकला के प्राचीन वैभव का साक्षी है। यह मंदिर स्थापत्य एवं पाताल से शिवलिंग के प्रकटीकरण की घटना के आधार पर इसका नामकरण "पातालेश्वर महादेव मंदिर" हुआ है।

ऐसी मान्यता है कि यहां भव्य शिव मंदिर के साथ-साथ अन्य देवी-देवताओं के बावन मंदिर भी बनवाए गए थे। वर्तमान में यह मंदिर भग्नावशेषों के रूप में अपने प्राचीन वैभव एवं कलात्मक सौंदर्य की ओर संकेत करता है।

मंदिर की उत्पत्ति से जुड़ी पौराणिक कथा:

इस मंदिर के प्राकट्य के संबंध में मान्यता है कि लगभग बारह-तेरह सौ वर्ष पहले ग्राम के बाहर जहाँ पशुओं के लिए चराई का स्थान गोचर था, वहाँ एक दिन एक गाय के स्तनों से एक निश्चित स्थान पर स्वतः ही दूध की धारा निकलने लगी। सायंकाल जब गाय वापस अपने घर लौटी तो मालिक को गाय के स्तन खाली देखकर संदेह हुआ कि किसी ने गाय के स्तनों से दूध निकाल लिया होगा। जब कुछ दिन तक लगातार ऐसा ही हुआ तो उसने एक दिन चराई वाले स्थान पर छिपकर गाय की निगरानी की। जब सायंकाल गोधूलि बेला में गाय स्वतः उस स्थान पर पहुंची तो उसके स्तनों से स्वतः ही दूध की धारा बहने लगी। गाय के स्वामी को बहुत आश्चर्य हुआ। उसने अपने परिवार सहित गांव वालों को यह घटना बताई। दूसरे दिन परिवार के अन्य सदस्यों ने भी वही घटना देखी। गांव के लोगों ने उस स्थान को थोड़ा खोदा तो वहाँ शिवलिंग पाया। पाताल से शिवलिंग के प्रकटीकरण की घटना की खबर चारों ओर फैल गई और इस स्थान पर शिव के दर्शनार्थ भक्तगणों का सैलाब उमड़ने लगा। गांव के सब लोगों ने मिलकर इस स्थान पर भव्य मंदिर बनाया। अनेक लोगों ने मंदिर के लिए धन भेंट किया। वर्षों की श्रम शक्ति और अनगिनत धन खर्च करके वहाँ भव्य मंदिर का निर्माण किया गया। इस मंदिर के चारों ओर अन्य देवी-देवताओं के बावन लघु मंदिर भी बनवाए गए। मंदिर में जल हेतु एक बावड़ी भी खुदवाई गई।

मंदिर की स्थापत्य कला अत्यंत भव्य थी, और सफेद संगमरमर के प्रस्तरों पर कलात्मक उत्कीर्णन किया गया। इस भव्य मंदिर के कारण इस ग्राम का नाम "शिववाड़ा" अथवा "शिवाला" पड़ गया जो कालांतर में "सेवाड़ा" हो गया।

स्थापना से जुड़ी एक प्राचीन मान्यताः

सेवाड़ा स्थित पातालेश्वर महादेव मंदिर की स्थापना से जुड़ी एक प्राचीन मान्यता है, कि इसका निर्माण विक्रम संवत 606 से भी पूर्व कन्नौज के प्रतापी राजा हर्षवर्धन द्वारा करवाया गया था।

राजा हर्षवर्धन प्रतिवर्ष गुजरात के सोमनाथ मंदिर में दर्शन एवं साधना के लिए जाते थे और वहां एक माह तक ठहरते थे। एक दिन पूजा करते समय उन्होंने भगवान शिव से प्रार्थना की—

"हे प्रभु! मैं हर वर्ष आपके दर्शन हेतु यहाँ आता हूँ, कृपया आप स्वयं कन्नौज पधारें, जिससे मैं सदा आपकी सेवा कर सकूँ।"

राजा की भक्ति से प्रसन्न होकर महादेव ने उन्हें एक दिव्य शिवलिंग प्रदान किया और कहा—

"इस शिवलिंग को अपने राज्य में स्थापित करो, किंतु ध्यान रहे कि मार्ग में इसे कहीं भी धरती पर मत रखना। यदि यह एक बार पृथ्वी पर स्थापित हो गया, तो फिर इसे हटाना संभव नहीं होगा।"

राजा हर्षवर्धन, शिवलिंग को लेकर कन्नौज लौटने लगे। जब वे सेवाड़ा (सिवाड़ा) पहुंचे, तो रात्रि हो गई। राजा ने शिवलिंग को अपनी गोद में रखकर विश्राम किया, लेकिन जब प्रातः जागे तो शिवलिंग उनकी गोद से फिसलकर धरती पर स्थापित हो चुका था। राजा ने इसे उठाने का प्रयास किया, लेकिन शिवलिंग अपनी जगह से हिला तक नहीं। जब आसपास खुदाई कराई गई, तब भी उसका तल नहीं मिला।

"हे प्रभु! आप तो पाताल में समा गए..." राजा की इस पुकार के बाद से इस स्थान को "पातालेश्वर" कहा जाने लगा। राजा हर्षवर्धन ने सोमनाथ मंदिर की भांति ही भव्य शिव मंदिर का निर्माण करवाया, जिसके चारों ओर 52 छोटे-छोटे देवी-देवताओं के मंदिर भी बनवाए गए।

मंदिर पर आक्रमण और विध्वंस:

कहा जाता है कि पालनपुर के नवाब ने सर्वप्रथम इस विशाल शिव मंदिर को तोड़ा तत्पश्चात गुजरात विजय अभियान में निकले अलाउद्दीन खिलजी ने जालोर नरेश कान्हड़देव को सबक सिखाने की दृष्टि से वापसी के दौरान सेवाड़ा के मंदिर को नष्ट किया।

इतिहासकारों के अनुसार, सोमनाथ विजयों पर आए मुहम्मद गजनवी, मुहम्मद गौरी ने इस मंदिर के मूल ढांचे को बड़ा नुकसान पहुँचाया और इस मंदिर का कई बार पुनर्निर्माण व जीर्णोद्धार करवाया गया।

तेरहवीं शताब्दी के मध्य में इस मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया गया जिसका शिलालेख आज भी मंदिर परिसर में लगा हुआ है। तत्पश्चात पर्याप्त देखरेख के अभाव में मंदिर खंडहर होता गया। मंदिर का शिखर गायब है व संपूर्ण मंदिर ऊपर से आधा नष्ट हो गया है। मानो धर्म, आस्था एवं संस्कृति के किसी हरे वृक्ष को ऊपर से काटकर फेंक दिया गया हो। मंदिर परिसर में प्राचीन मूर्तियां, टूटे हुए कलात्मक स्तंभ, छोटे-छोटे देवालय भग्नावस्था में पड़े हुए हैं।

खुदाई में मिली प्राचीन मूर्तियां:

18 दिसंबर 2014 को मंदिर परिसर में खुदाई के दौरान कई प्राचीन मूर्तियां मिलीं। तत्कालीन कलेक्टर जितेंद्र कुमार सोनी को जब इसकी सूचना दी गई, तो उन्होंने स्वयं स्थल का निरीक्षण किया और इन मूर्तियों को रानीवाड़ा तहसील कार्यालय के डबल लॉकर में सुरक्षित रखने के निर्देश दिए। बाद में, श्रद्धालुओं की आस्था को देखते हुए प्रशासन ने ये मूर्तियां मंदिर को सुपुर्द कर दीं।

मंदिर का वर्तमान जीर्णोद्धार कार्य:

15 जुलाई 2004 को ग्रामीणों ने जालोर सिरे मंदिर के पीर शांतिनाथ जी के सानिध्य में मंदिर के जीर्णोद्धार कार्य की शुरुआत की। पूर्व सरपंच हिम्मतसिंह सोलंकी एवं स्थानीय श्रद्धालु  मंदिर के पुराने स्वरूप को पुनर्जीवित करने के लिए दिन-रात प्रयास किए। सन् 2004 से 2016 तक इन 11 वर्षों में 15 से अधिक कुशल कारीगरों ने मंदिर की शिल्पकला को पुनः निखारने का कार्य किया था।

मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा:

मंदिर के जीर्णोद्धार कार्य के पश्चात 2016 में, 14 अप्रैल को जालोर सिरे मंदिर के महंत गंगानाथ महाराज एवं महंत शंकरस्वरूप महाराज के सानिध्य में भव्य प्राण प्रतिष्ठा समारोह आयोजित किया गया। यह महोत्सव 10 से 14 अप्रैल तक चला, जिसमें विभिन्न धार्मिक अनुष्ठान, यज्ञ एवं पूजन कार्यक्रम संपन्न हुए।

मंदिर के चारों ओर पेड़-पौधों से इसे हरित एवं सुंदर बनाया जा रहा है। सोमवार को श्रद्धालुओं की भारी भीड़ उमड़ती है, और श्रावण मास में यहां प्रतिदिन मेले जैसा दृश्य रहता है।

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